12 फ़रवरी 2018

वैलेंटाइन डे पर एक लेख

जयदीप कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय
फरवरी महीने का दूसरा हप्ता प्रेमी - प्रेमिकाओं के लिए खास होता हैं इस हप्ते को प्रेमी बड़ी बेसर्बी से इंतज़ार करते हैं ये हप्ते पहले रोज डे से शुरुआत होती हैं और वेलेंटाइन डे पर खत्म होता हैं वेलेंटाइन डे केवल प्रेमी और प्रेमिकाओं के लिए ही नही होता बल्कि उन सभी के लिए होता हैं जो किसी न किसी को प्यार करते हैं माँ - बेटे के लिए भाई - बहन के लिए या दोस्त , दादा- दादी  बच्चे सभी के लिए होता हैं
    चलिए इस पूरे हप्ते के सभी डे के बारे में बताते हैं
1- 7 फरवरी रोज डे - हफ्ते के पहले दिन की शुरुआत रोज डे के साथ होती है। इस दिन हम जिससे प्यार करते हैं उसे गुलाब का फूल देकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
2- 8 फरवरी प्रपोज डे- दूसरा दिन प्रपोज डे का होता है। इस दिन प्रेमी जोड़ा एक-दूसरे को प्रपोज करता है।
3- 9 फरवरी चॉकलेट डे- चॉकलेट तो सभी को पसंद होती है। प्यार का इजहार करने के लिए चॉकलेट का सहारा लिया जा  है इससे सामने वाले की नाराजगी को पल भर में दूर हो जाती  है। इस दिन चॉकलेट देने से प्यार बढ़ता है।
4- 10 फरवरी टैडी डे- लड़कियों को टैडी बहुत पसंद होता है। टैडी को पूरी दुनिया में प्यार का प्रतीक माना जाता है। बचपन से लेकर जवानी तक टैडी आप के साथ होता हैं
5- 11 फरवरी प्रॉमिस डे- वादे हर रिश्ते की आधारशिला होते हैं। आप जिससे प्यार करते हैं उनसे आप खास वादा करते हैं वादा अपने हिसाब से करते हैं
6- 12 फरवरी किस डे- वैलेनटाइन वीक के छठे दिन को किस डे के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन प्रेमी युगल किस करके अपने प्यार का एहसास अपने साथी को करवाते हैं
7- 13 फरवरी हग डे- गले लगाकर आप बहुत से रुठे हुए अपने प्रियजनों को हम मानते हैं। इस दिन आप गर्मजोशी से एक-दूसरे को गले लगाकर अपनी भावनाओं का अहसास दिला सकते हैं।
8- 14 फरवरी वैलेनटाइन डे- इस दिन प्यार करने वालों के लिए महत्वपूर्ण होता है। इस दिन को प्रेमी जोड़ा एक-दूसरे के लिए स्पेशल बनाने के साथ ही उसे कभी ना भूलने वाला दिन बनाने की कोशिश करते हैं। एक सप्ताह चलने वाले प्यार के त्योहार का अंत वैलेंटाइन डे के साथ ही हो जाता है।

महाशिवरात्रि

डॉ. राजकुमार उपाध्याय मणि

इस बार महाशिवरात्रि को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है इसकी वजह यह है कि महाशिवरात्रि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि को होती है..
इस साल 13 जनवरी को पूरे दिन त्रयोदशी है और मध्यरात्रि में 11 बजकर 35 मिनट से चतुर्दशी शुरू होगी
जबकि 14 फरवरी को पूरे दिन और रात 12 बजकर 47 मिनट तक चतुर्दशी होगा ऐसे में लोगों के बीच असमंजस है कि महाशिवरात्रि का व्रत 13 फरवरी को रखा जाये या 14 फरवरी को ?

इस असमंजस को दूर करने के लिए धर्मसिंधु नामक ग्रंथ का सहारा लिया जिसमें ऐसे हालात के लिए कहा गया है :
*परेद्युर्निशीथैकदेश-व्याप्तौ पूर्वेद्युः सम्पूर्णतद्व्याप्तौ पूर्वैव..'*
इन पंक्तियों का अर्थ समझें तो कहा गया है कि :- अगर चतुर्दशी दूसरे दिन निशीथ काल में कुछ समय के लिए हो और पहले दिन संपूर्ण भाग में हो तो पहले दिन ही महाशिवरात्रि का व्रत करना चाहिये

यानी इस बार 13 फरवरी को महाशिवरात्रि का व्रत रखें.!!

*ऊँ नमः शिवाय*

न जाने किधर - कविता

नीरज सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय

अब हम दूर होने लगे हैं !
न जाने किधर खोने लगे हैं ?

न सुबह का ख्याल हैं !
न शाम की पहल हैं ?

न अपनो का साथ हैं !
न गैरों का प्यार है ?

न बातों की रातें हैं !
न प्यासे नैना हैं ?

न कुछ बात रही अब दिल में !
न कुछ सपनें आते इस मन में ?

न तुम रही !
न यादें अब तुम्हारी ?

अब हम दूर होने लगें हैं !
न जाने किधर खोने लगें हैं !
न जाने किधर ...... ?

देव भूमि ऋषिकेश

संदीप कुमार
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
एक बेहतरीन यात्रा देव भूमि ऋषिकेश की, जहाँ गंगा पर्वतमालाओं को पीछे छोड़ समतल धरातल की तरफ आगे बढ़ जाती है। ऋषिकेश का शांत वातावरण कई विख्यात आश्रमों का घर है। उत्तराखण्ड में समुद्र तल से 1360 फीट की ऊंचाई पर स्थित ऋषिकेश भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। हिमालय की निचली पहाड़ियों और प्राकृतिक सुन्दरता से घिरे इस धार्मिक स्थान से बहती निर्मल पवित्र मां गंगा इसे अतुल्य बनाती है मान्यताओं के इस स्थान पर ध्यान लगाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस देव लोक का अदभुत,अदुतीय दर्शन करने का  सौभाग्य हम सभी मित्रों को मिला।

भारतीय सिनेमा में स्त्री

जयदीप कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय

भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1896 में हुई । भारत में प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनने का श्रेय श्री गोविन्द फाल्के उर्फ़ या दादा साहब फाल्के को जाता है । दादा साहब फाल्के ने अपने लन्दन प्रवास के दौरान एक चलचित्र देखा जो ईसा मसीह के जीवन पर आधारित था । जिससे दादा साहब फाल्के को भी पौराणिक कथाओं पर चलचित्र निर्माण करने की इच्छा जागृत हुयी और इसलिए  स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र नामक फिल्म का निर्माण किया, जो 03 मई 1913 में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुआ ।

वर्ष 1931 में पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” बनी. वर्ष 1931 में भारत में सिनेमा के क्षेत्र में स्त्री की स्थिति अच्छी नहीं थी । कोई भी स्त्री सिनेमा जैसे कलात्मक, मनोरंजनात्मक विधा में आने और अपनी प्रतिभा दिखाने को तैयार नहीं थी ।

दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1913 में ही फिल्म मोहिनी भस्मासुर का निर्माण किया, जिसमे कमला गोखले और उनकी माँ दुर्गा गोखले ने अभिनय किया और इनको भारतीय फिल्म जगत की पहली महिला अभिनेत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ ।

दुर्गा गोखले का फिल्मों में आना कोई पारिवारिक स्वीकृति या अभिनय की इच्छा न होते हुए एक  विवशता थी. अपने पति से अलगाव की स्थिति में उनके पास तीन ही विकल्प थे. पहला विकल्प: किसी के घर में काम करना. दूसरा- वेश्यावृति का काम करना, तीसरा- फिल्मों में अभिनय करना । तीनों ही समाज की दृष्टि से निंदनीय थे लेकिन दुर्गा गोखले ने अपने और अपनी पुत्री के जीवन यापन के लिए ये रास्ता चुना और सिनेमा में एक नयी क्रांति की शुरुआत हुई ।

इस प्रकार फिल्मों में स्त्री का आगमन हुआ और इसी वर्ष 1926 में प्रदर्शित फिल्म बुलबुले परिस्तान पहली फिल्म में रूप में दिखी थी जिसका निर्देशन एक महिला बेगम फातिमा सुलतान ने किया ।

आज सिनेमा में स्त्री की स्थिति बदल गयी है फिल्मों में नायिका बनने की होड़ लग गयी है और अच्छे से अच्छे परिवार से लड़कियां फिल्मों में आ रही है ।

भारतीय समाज में व्याप्त नारी जीवन की विडम्बनाओं को लेकर फ़िल्में बनी जिसमें दुनिया ना माने (1937), अछूत कन्या (1936), बाल योगिनी (1936) आदि नारी जीवन की समस्याओं खासकर बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा को उजागर करते देखे गए जो उस समय समाज में विकृति के रूप में हावी थे ।

वर्ष 1933 में फिल्म कर्मा में नायिका देविका रानी ने ऐसा बोल्ड दृश्य अभिनीत किया जो समाज के अनुरूप अच्छा नहीं माना गया था परन्तु उस समय नायिका देविका रानी ने ही अपनी प्रतिभा लोगों के सामने प्रस्तुत किया इसके लिए उन्हें इस पर तारीफ भी मिली और लोगों से आलोचना भी ।

निर्देशक महबूब खान की फिल्म “मदर इंडिया” में एक महिला के संघर्षशील जीवन को बारीकी से दिखाया गया है । वह विपरीत हालातों में भी हिम्मत नहीं हारती और बड़े ही सादगी के साथ अपने बच्चों की परवरिश करती है ।

फिल्म 1960 में आयी “मुग़ल- ए- आजम” जिसमें अपने प्यार के लिए नायिका अपने आपको बलिदान कर देने की मजबूत इच्छाशक्ति रखती है ।

भारतीय हिन्दी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते. हमें बहुत से फिल्मों में नारी शक्ति का अद्भुत देखने को मिलता है. जैसे- देवदास, साहब बीवी और गुलाम, अंकुर, मासून, परिणीता, चक दे इंडिया आदि फिल्मों में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है ।

आज हिन्दी सिनेमा में नायिकाएं अपनी प्रतिभा लेकर इस प्रकार अपनी छाप लोगों के ऊपर छोड़कर आगे बढ़ते हुए देखी जा सकती हैं ।

नारी की भूमिका और महत्व

कुमुद सिंह
Proud to be an indian...
ya..i am proud to be an indian..
इंडिया..वो जगह..
जहाँ नारी को उजाले में पूजते है और अंधेरे में नोंचते है ,
जहाँ नारी को बाहरी दुनिया में सशक्त बनाने के नारे तो लगाते है और वही घर के अंदर उसकी शारीरिक क्षमता कम होने के कारण उस पर अपना ज़ोर आज़माते है ,
जहाँ बेटी पैदा करने के नाम से अछूता भी होना है और वही रात में छूने के लिए बिस्तर पर भी कोई होना चाहिए ,
जहाँ शादी के बाद बीवी की वर्जिनिटी भी चाहिए और शादी से पहले लड़कियों को नॉन-वर्जिन भी करना है,
जहाँ महिलाओं से जुड़े लाल धब्बे से घिन्न भी आती है और उन्ही से बच्चे भी चाहिये,
जहाँ औरत के बच्चे पैदा करने में असमर्थ होने पर उसे 'बांझ','असामाजिक तत्व',आदि जैसे स्वर्ण शब्दो से नवाजते है और खुद के असमर्थता पर अपनी मर्दानगी को नपुंसक शब्द से जुड़ता देख खून खौल उठता है................................
अब बस इससे ज्यादा कहने की हिम्मत नही कर रही है..है तो बहुत कुछ बयान करने को अपने 'incredible india' के बारे में पर अभी यही तक रहने देते है क्योंकि चाहे जो भी हो कहना तो पड़ेगा ही न मुझे की i m proud to be an indian..
#actuallyiamreallyproud

आखिर गलत क्या था

जयदीप कुमार
तुम्हारा घर बुलाना गलत था कि मेरा घर आना गलत था
अपने हाथों से खिलना था या तुमसे मोहब्बत करना गलत था
दूर जाते समय गले लगाना गलत था या आखो में आंसू छिपना गलत था
तुम्हारा नारज होना गलत था या मेरा मानना गलत था।
आखिर गलत क्या था ?

अपना दिल बहला कर देख लिया ।

जयदीप कुमार
क्या तुमने हमें आजमाकर देख लिया,
इक धोखा हमने भी खा कर देख लिया.
क्या हुआ हम हुए जो उदास,
उन्होंने तो अपना दिल बहला के देख लिया
    

आत्महत्या

जयदीप कुमार
लोग कहते हैं कि जो आत्महत्या करते है ओ वेवकूफ होते हैं पर ऐसा नही होता कोई भी मरना नही चाहता लेकिन
जब कोई बात किसी व्यक्ति की अंतरात्मा को छू जाती हैं तो वहीं से एक उत्तेजना उत्पन्न होती हैं जो सोचने और समझने की शक्ति को खत्म कर देता हैं।

सपना डांसर बनने का ।

जयदीप कुमार
बचपन से एक सपना था कि डांसर बनू इसी वजह से मैं वाराणसी में  डांस क्लास लेने लगा  लेकिन कुछ समय बाद मेरे सेहत में काफी गिरावट आने लगी।उसी समय मुझे पीलिया हो गया जिसके वजह से मैं जिला अस्पताल में मुझे एडमिट होना पड़ा जिसके वजह से मुझे काफी समय तक डांस से दूर रहना पड़ा। ठीक हो कर पुनः वाराणसी गया लेकिन डांस क्लास नही ले सका। इसी बीच मेरा एडमिशन दिल्ली विश्वविद्यालय में हो गया यहाँ पर सोचा कि कॉलेज की डांस सोसाइटी ले कर डांस सीखूंगा लेकिन जब तक मुझे डांस सोसाइटी के बारे में पता चला उससे पहले डांस का ऑडिसन हो चुका था। इस वजह से मैं डांस में तो नही हो सका लेकिन साउथ कैम्पस में ड्रामा करने लगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग - अलग कॉलेज में ड्रामा करने बाद फिर डांस वाली लाइन पर आ गया।साल बीत गया एक बार फिर से कॉलेज की डांस सोसाइटी में जाने का मौका आ गया ।अब क्या था डांस तो छूट चुकी थीं तो डांस का ऑडिशन कैसे देता तो इस लिए डांस का क्लास फिर लेने लगा ताकि डांस में मेरा सलेक्शन हो जाये। ऑडिसन हुआ मैं भी ऑडिसन देने गया जब ऑडिसन का रिजेल्ट आया तो उसमें सबसे नीचे मेरा भी नाम था। अब तो कॉलेज की डांस सोसाइटी में हो गया था तो जो मैं डांस क्लास ले रहा था उसको बन्द कर दिया।अब कॉलेज की डांस सोसाइटी में डांस कर और सीख रहा हूँ।

11 फ़रवरी 2018


कुमुद सिंह

हाउसवाइफ....सुनने में कितना साधारण लगता है ना ये शब्द और सुनने में ही क्यों..काफी लोग बल्कि पूरे पुरुष समाज में इसे साधारण ही समझा जाता है बल्कि साधारण भी नही अति साधारण।
हँसी आती है पुरुषों को यह कहते सुनकर की अरे तुम दिनभर करती ही क्या हो,घर पर ही तो रहना है आराम से।
हा हा हा..आराम से!यह शब्द सुनकर गुस्सा नही आता है बल्कि ऐसे सोच वाले लोगो पर दया आती है कि अभी तक किसी की सोच शिशु के भाँति ही है थोड़ा भी विकास नही हुआ। सच मे काफी दयनीय स्तिथि है पुरूषों की समाज मे।
कुछ दिनों से मैं सपना चमड़िया की एक किताब 'रोज वाली स्त्री' पढ़ रही हूँ।उसमें उन्होंने एक हाउसवाइफ के पूरे जीवन को बखूबी शब्दो मे उतार दिया है पर सवाल यह है कि क्या यह मालिको की कथित समाज मे बेगार हाउसवाइफ की कठिन और दूसरो के लिए समर्पित ज़िन्दगी को समझने हेतु विकसित मानसिकता है??
नहीं... वो तो अभी शिशु है..विकास आने में तो अभी काफी समय है..
#शिशु

कुमुद सिंह

हाउसवाइफ....सुनने में कितना साधारण लगता है ना ये शब्द और सुनने में ही क्यों..काफी लोग बल्कि पूरे पुरुष समाज में इसे साधारण ही समझा जाता है बल्कि साधारण भी नही अति साधारण।
हँसी आती है पुरुषों को यह कहते सुनकर की अरे तुम दिनभर करती ही क्या हो,घर पर ही तो रहना है आराम से।
हा हा हा..आराम से!यह शब्द सुनकर गुस्सा नही आता है बल्कि ऐसे सोच वाले लोगो पर दया आती है कि अभी तक किसी की सोच शिशु के भाँति ही है थोड़ा भी विकास नही हुआ। सच मे काफी दयनीय स्तिथि है पुरूषों की समाज मे।
कुछ दिनों से मैं सपना चमड़िया की एक किताब 'रोज वाली स्त्री' पढ़ रही हूँ।उसमें उन्होंने एक हाउसवाइफ के पूरे जीवन को बखूबी शब्दो मे उतार दिया है पर सवाल यह है कि क्या यह मालिको की कथित समाज मे बेगार हाउसवाइफ की कठिन और दूसरो के लिए समर्पित ज़िन्दगी को समझने हेतु विकसित मानसिकता है??
नहीं... वो तो अभी शिशु है..विकास आने में तो अभी काफी समय है..
#शिशु

22 फ़रवरी 2017

लोकजन स्वर : पर्यावरण और राजनीति

लोकजन स्वर : पर्यावरण और राजनीति: जयदीप कुमार  गंगा और यमुना नदी का प्रदूषण कोई नई बात नहीं हैंI लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में गंगा का सवाल उठाया ...

भारतीय सिनेमा

  कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है समाज की संस्कृति को बताने का एक माध्यम होता है समाज में बदलाव लाने का काम करता है वास्तव में स...